Wednesday, August 08, 2007

भाषा: एक छोटी सी टिप्पणी

कुछ पाठक पूछ रहे थे कि जब मैं हिंदी में लिख लेता हूँ तो और क्यों नहीं लिखता? एक वजह तो ये कि हिंदी टाईप करने में थोड़ी दिक्कत होती है, लेकिन थोडा सोचने पर ये बस बहाना मालूम होता है। वास्तव में हिंदी में लिखने और सोचने कि आदत चली गयी है। हिंदी पट्टी को छोडे हुए बरसों बीत गए, और अब अगर हिंदी में बातचीत करता भी हूँ, तो कभी कुछ भी गम्भीर और अर्थपूर्ण बातचीत नही होती है। उसके लिए हमेशा अंग्रेजी का ही सहारा लेना होता है। इसके कारण हिंदी पर पकड़ धीरे धीरे कमजोर होती जा रही है। अब अगर एक साधारण सा लेख या कोई छोटी सी समीक्षा लिखने को बैठूं तो समझ नही आता कि क्या लिखूं। वही बात अगर अंग्रेजी में कहनी हो कहीं कोई दिक्कत नही होती, शब्द अपने आप मिलते जाते है, वाक्य विन्यास के बारे में भी सोचने की जरूरत महसूस नही होती।

मुझे हमेशा लगता है की भाषाई दरिद्रता ना सिर्फ वैचारिक बल्कि आत्मिक दरिद्रता को भी दर्शाती है। जितनी क्षीण आपकी भाषा होगी उतने ही क्षीण आपके विचार और आपकी संवेदनाएं। भाषा ही वो चीज है जो दिमाग में कुलबुलाते हुए विचारों को एक ठोस आकार देती है। इसके बिना सारे विचार बस साबुन के बुलबुले की भांति हैं, आये और गए। उनका आपके व्यक्तित्व या आपकी आत्मा पर कोई प्रभाव नही पड़ेगा। यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूं कि भाषा ज्ञान से मेरा मतलब पर्यटकों वाली हाय हेलो भाषा से नहीं है, वो आप दो दिनों में किसी मनुअल को पढ़कर सीख जायेंगे। मैं बात कर रह हूँ, अपने विचार और भावनाओं को व्यक्त करने की समर्थता के बारे में। साधारण बातचीत और इस भाषा में काफी अंतर है।

एक और बात हम द्विभाषीय लोगों के बारे में। व्लादिमीर नाबोकोव अपनी आत्मकथा स्पीक, मेमोरी में लिखतें हैं कि जब वे बर्लिन में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे थे तो उन्होने जानबूझ कर जर्मन भाषा नही सीखी क्योंकि उन्हें लगता ता कि नयी भाषा शायद उन्हें उनकी प्रियतम रूसी भाषा से कहीं दूर ना कर दे। ये ऐसा की मानों रूसी भाषा भाषा ना हुई, बल्कि एक प्रेमिका हो गयी! (उन्हें जर्मन भाषा ज्यादा पसंद भी नही थी, हालांकि उन्हें इतना ज्ञान जरूर था जिससे वो काफ्का के अनुवादकों पर तीखी टिप्पणी कर सकते थे।) बाद में भी उन्होने अंग्रेजी भाषा को तभी अपनाया जब अमेरिका में आजीविका का कोई और दूसरा सहारा ना था।

अब मुझे लगता है कि जब ऐसे महान भाषा विशारद (उनकी त्रिभाषीय प्रतिष्ठा पर कोई शंका नही कर सकता) जब भाषा के मामले में इतनी असुरक्षा महसूस कर सकते हैं तो फिर साधारण प्राणी जिन्हें भाषा सीखने के लिए बरसों अभ्यास करना पड़ा, वो क्या करें? मुझे अंग्रेजी भाषा कोई कम प्रिय नहीं है, पर क्या दोनों भाषाओं पर एक गम्भीर पकड़ संभव है? उत्तर तो अवश्य हाँ ही होगा बस दोनों भाषाओं पर उचित समय देने की जरूरत है।

5 comments:

उन्मुक्त said...

प्रसन्नता हुई कि आपने हिन्दी में लिका।
दो भाषाओं में पकड़ के बारे में चिन्ता न करें। नोम चॉमस्की एम.आई.टी. में भाषा विज्ञान के प्राध्यापक हैं। उनका कहना है कि सारी भाषाओं के व्याकरण के सिद्धान्त लगभग एक से हैं। इसलिये अक्सर लोग जो एक भाषा में प्रवीण होते हैं वे और भाषा में भी।

Cheshire Cat said...

It's interesting, reading Hindi makes me think about things that I take for granted when they're said in English - something like Shklovsky's concept of defamiliarization, I suppose.

I have a tortured relationship to Hindi - on the one hand, I think of it as an imperialist language; on the other, it's more appealing to me aesthetically than my native language.

Alok said...

उन्मुक्त जी: ये सही है कि भाषाओं में आधारभूत समानता होती है, फिर भी अगर आप भाषा इस्तेमाल ही ना करें, तो उसपर पकड़ तो कमजोर ही होती जायेगी।

cat: hindi, an imperialist language?? Poor Hindi, herself being oppressed and harrassed by imperialist English!!

defamiliarization is true. in fact I read somewhere some poet/translator was saying that you learn and understand poetry only when you try to translate it to another language. i think we should all at the very least be bilingual.

Space Bar said...

Alok, just one reason why I don't read the posts in Hindi: they turn up too tiny for comfort. Maybe just for the Hindi posts you could increast the font size? It's hard on the eye and I give up.

Alok said...

Will check next time. Right now it is messing up the spellings.

It is nothing important anyway, but in any case you can use the Browser control to increase the text size (it's in the view menu of the browser) if you really want to.